महागणपति साधना रहस्यम

धूमावती दीक्षा प्रकल्प भाग -३

जै_माई_की
मित्रों, पूर्व लेख में महागणपति के विषय में कुछ आंशिक वर्णन किया गया था। पूर्व लेख को पढ़ने वाले पाठकों के विशेष अनुग्रह के कारण महागणपति के विषय में और अधिक प्रकाश डाला जा रहा है।
प्रपञ्च सार तंत्र के अनुसार, महागणपति की परिवार शक्तियों का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि बिल्ववृक्ष( बेल का पेड़ ) के नीचे ” श्री लक्ष्मी और नारायण” श्रीमहागणपति के सम्मुख स्थित हैं, वट-वृक्ष के नीचे ‘श्रीपार्वती’ और ‘परमेश्वर’ उनकी दाहिनी ओर स्थित हैं, पीपल के वृक्ष के नीचे ‘रति’ और ‘कामदेव’ उनके पीछे स्थित हैं तथा ‘प्रियंगु’ वृक्ष के नीचे ‘भूमि’ और ‘वराह’ उनकी बाँईं ओर विराजित हैं। मध्य में पारिजात वृक्ष के नीचे ‘महागणपति जी’ विराजमान हैं और उनके दस में से आठ हाथों में सभी देवी और देवताओं के आयुध हैं। शेष दो हाथों में से एक में ‘अनार का फल’ है, दूसरे में टूटा हुआ ‘गज-दन्त’ । उनकी गोद में उनकी पत्नी ‘बल्लभा’ बैठी हुई हैं। उनके ‘मोदक’ अथवा ‘रत्न-कलश’ अथवा ‘अनार के फल’ द्वारा उनके आनन्द- रूप-साक्षात् साकार ‘आनन्द ब्रह्म’ की कल्पना होती है।”

श्रीमहागणपति कि उपासना की प्राचीनता

‘प्रपञ्च-सार तन्त्र’ आदिगुरु शङ्कराचार्य द्वारा रचित है। ‘प्रपञ्च-सार तन्त्र’ के उक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि ‘श्रीमहा-गणपति’ की उपासना का सम्यक् विकास आदि-शङ्कराचार्य जी के काल में ही हो चुका था। यही नहीं, आदि-शङ्कराचार्य जी के गुरु श्री गौड़पादाचार्य जी ने ‘चिदानन्द- केलि-विलास’ नामक ग्रन्थ के मङ्गलाचरण में पहले ‘ श्रीगणेशाय नमः’ के द्वारा प्रारम्भ किया है और उसके आगे यह श्लोक लिखा है-

गुरुं गणपतिं दुर्गाम, वाणीं महिष-मर्दिनीम् । ध्यात्वा सप्तशती-देव्या, व्याकुर्वे विदषां मुदे ।।
अस्तु ! ‘महा-गणपति’ की साधना हम लोगों के लिए अत्यन्त महत्त्व-पूर्ण है। उनके मन्त्र का सतत चिन्तन एवं जप तथा उनके स्वरूप का नित्य ध्यान-हमारे लिए परम आवश्यक है। इसी उद्देश्य से Dhumavati_Aamnay द्वारा यह लेख आध्यात्मिक विकास हेतु ‘श्रीमहा-गणपति-साधना’ साधकों के समक्ष प्रस्तुत हो रही है। आशा है कि समस्त सत्यनिष्ठ साधकवर्ग इससे लाभ उठाएंगे।

'महा-गणपति' के प्रादुर्भाव की कथा

‘श्रीमहा-गणपति’ के प्रादुर्भाव की कथा ‘ब्रह्माण्ड पुराण’ में ‘श्रीललितोपाख्यान’ में एवं उनके ‘पूजन’- आदि का विवरण ‘शारदा-तिलक तन्त्र’ आदि प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित है।

‘श्री ललितोपाख्यान’ में वर्णित कथा के अनुसार भगवती श्रीमहा-त्रिपुर-सुन्दरी ललिता के साथ भण्डासुर दैत्य का घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था। उनकी पुत्री भगवती बाला-त्रिपुर-सुन्दरी एवं सेना-नायिका दण्ड-नाथा(महावाराही ) द्वारा ‘भण्डासुर’ के तीन सौ पुत्रों का निधन हो चुका था। श्री त्रिपुरा की
इस विजय पर भण्डासुर के मन्त्री विशुक्र ने एक बड़ी भारी शिला पर ‘जय-विघ्न-यन्त्र’🔯 लिखकर, उसकी पूजा कर रात्रि के समय उसे श्रीत्रिपुरा की सेना की छावनी में एक कोने में रख दिया। उसके प्रभाव से श्रीत्रिपुरा की सेना में १. आलस्य, २. दीनता, ३. निद्रा, ४. शिथिलता, ५. विस्मृति, ६. विवेक-शून्यता, ७. दुर्बल-मानसिकता एवं ८. उत्साह-हीनता-ये आठ दोष उत्पन्न हो गए। इन दोषों से अवसर पाकर विशुक्र ने श्रीत्रिपुरा की शक्ति सेना पर आक्रमण कर दिया।

श्रीललिता की सेना-नायिका दण्डनाथा (महावाराही) एवं मन्त्रिणी (महामातंगी ) सची-केशी ने जब विशुक्र द्वारा आक्रमण एवं अपनी सेना की विषम स्थित के बारे में महा-राज्ञी श्रीललिता को बताया, तो श्रीललिता महा-त्रिपुर-सुन्दरी मुस्कराती हुई अपने समीप स्थित श्रीमहा-कामेश्वर के मुख की ओर निहारने लगीं।

श्रीमहा-त्रिपुर-सुन्दरी ललिता के उक्त मन्द हास्य से एक प्रभा-पुञ्ज उत्पन्न हुआ और उस प्रभा-पुञ्ज से एक तेजस्वी देवता का प्रादुर्भाव हुआ, जिनका मुख हाथी के समान था। उनके गण्ड- स्थल से मद-जल की धारा बह रही थी। उनकी अङ्ग कान्ति जपा-कुसुम के समान सुशोभित थी। उनके दस हाथों एवं शुण्ड में क्रमशः बीजपूर, गदा, ईख का धनुष, शूल, शङ्ख, पाश, कमल, धान की बाली, वर-मुद्रा, अंकुश तथा रत्न-मय कलश था। उनका शरीर लम्बे उदरवाला था। उनके मस्तक पर चन्द्राकार चूड़ामणि सुशोभित थी। उनके मुख से मद-मत्त करनेवाली गर्जन-ध्वनि निकल रही थी। वह सिद्धि-लक्ष्मी से आलिङ्गित था। उन गजानन देवता ने प्रकट होते ही महेश्वरी श्री ललिता के चरणों में प्रणाम किया।

श्रीत्रिपुर-सुन्दरी ललिता देवी से आशीर्वाद लेकर वे गजानन सेना-शिविर में पहुँचे और शिविर में चारों ओर घूमते हुए उन्होंने एक कोने में स्थित ‘विघ्न यन्त्र’ को देखा। शीघ्र ही उसे उन्होंने अपने घोर दन्ताघात से चूर्ण कर आकाश में फेंक दिया। ‘विघ्न-यन्त्र’ के नष्ट होते ही श्री त्रिपुरा के शक्ति-सेना पुनः सचेत हो गई और वह ‘विशुक्र’ की सेना से लड़ने लगीं।

श्रीगजानन के मद से ‘विशुक्र’ की सेना मूर्छित हो गई और वे अपने विघ्न विनायकों तथ शक्तियों के साथ ‘विशुक्र’ की सेना के भीतर पहुँच गए। वहाँ उन्होंने सात अक्षौहिणी सेना सहित गजासुर नामक अत्यन्त पराक्रमी दैत्य का संहार किया।

इस प्रकार गजासुर को मारकर श्रीमहा-गणपति जब अपनी माँ श्रीललिताम्बा के सन्मुख उपस्थित हुए, तब उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें सबसे पहले पूजे जाने का वर प्रदान किया।

◆ श्रीमहा-गणपति की 'पूजा'

श्रीमहा-गणपति की ‘पूजा’ के सम्बन्ध में भगवान् परशुराम अपने ग्रन्थ ‘परशुराम- कल्प-सूत्र’ में लिखते हैं कि सबसे पहले ‘श्रीमहा-गणपति’ का ध्यान करना चाहिए- ‘देवं सिद्ध- लक्ष्मी-समाश्लिष्ट-पार्श्वम्।’ अर्थात् भगवान् महा-गणपति का वाम-पार्श्व सिद्ध-लक्ष्मी से (पूर्णेश्वरी), आलिङ्गित है। वे मणि-मय रत्न-सिंहासन पर विराजमान हैं। उनका शरीर करोड़ों सूर्यो के समान
चमकीला रक्त-वर्णवाला है। मस्तक पर चंद्रमौलि  है। ग्यारह भुजाएँ हैं। इस प्रकार परमानन्द- पूर्ण गण्ड-स्थल से मद की धारा बहानेवाले सर्व-विघ्न-विध्वंसक महा-गणपति का ध्यान करना चाहिए।

इसके बाद, सिद्ध-पीठ (त्रिकोण-षट्‌कोण-वृत्त-चतुरस्र आदि) बनाकर उस पर गन्ध-पुष्प से पूजित शुद्ध जल से पूर्ण ‘अर्घ्य’-पात्र स्थापित करना चाहिए। उस ‘अर्घ्य’-पात्र के जल से श्रीमहा- गणपति की पूजा (पाद्य, अर्घ्य, आचमन, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवद्य, ताम्बूल, नीराजन आदि) अथवा तर्पण करना चाहिए। पूजा एवं तर्पण करने के बाद ‘श्रीमहा-गणपति की स्तुति करनी चाहिए। इसके बाद ‘श्रीमहा-गणपति के मन्त्र का जप’ करना चाहिए। यथा-‘देवं गण-नाथं दशधोपतर्यगन्ध- पुष्पाक्षतैरभ्यर्च्य निर्विघ्न-मन्त्र-सिद्धिर्भूयादित्यनुग्रहं कारयित्वा नमस्कृत्य यथा-शक्ति जपेत्।’

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